966 में जयपुर में जन्मे इरफ़ान ख़ान का बचपन एक छोटे से क़स्बे टोंक में गुज़रा. शहर छोटा था पर सपने बड़े थे.
ये स्वाभाविक था कि बचपन से ही क़िस्से कहानियों के शौक़ीन इरफ़ान का झुकाव सिनेमा की तरफ़ हुआ. ख़ासकर नसीरुद्दीन शाह की फ़िल्में देखकर.
राज्य सभा टीवी को दिए एक इंटरव्यू में लड़कपन का एक क़िस्सा सुनाते हुए इरफ़ान ने बताया था, “मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्म मृग्या आई थी. तो किसी ने कहा तेरा चेहरा मिथुन से मिलता है. बस अपने को लगा कि मैं भी फ़िल्मों में काम कर सकता हूँ. कई दिनों तक मैं मिथुन जैसा हेयरस्टाइल बनाकर घूमता रहा.”
2012 में आई फ़िल्म के लिए इरफ़ान ख़ान को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
या फिर हैदर में कश्मीर में रूहदार का वो रोल जो कहता है- झेलम भी मैं, चिनार भी मैं, शिया भी मैं, सुन्नी भी मैं और पंडित भी.
रूहदार का किरदार जो कहने को एक भूत था पर आपको यक़ीन दिलाता है कि वो असल में है और आपकी ही ज़मीर की आवाज़ है.
या फ़िल्म मक़बूल में अब्बाजी के लिए वफ़ादारी (पंकज कपूर) और निम्मी (तब्बू) के बीच फँसा मियां मक़बूल (इरफ़ान) जो अब्बाजी का क़त्ल कर उससे तो पीछा छुड़ा लेता है पर ग्लानि उसका पीछा नहीं छोड़ती. वो सीन जहां इरफ़ान और तब्बू को अपने साफ़ हाथों पर भी ख़ून के धब्बे नज़र आते हैं- बिना कुछ कहे ही इरफ़ान आत्मग्लानि का वो भाव हम तक ख़ामोशी से पहुँचाते हैं.
जब फ़िल्म जज़्बा में वो ऐश्वर्या से कहते हैं कि ‘मोहब्बत है इसीलिए तो जाने दिया, ज़िद्द होती तो बाहों में होती’ तो आपको यक़ीन होता है कि इससे दिलकश आशिक़ी हो ही नहीं सकती.
कहने का मतलब कि इरफ़ान ख़ान की ख़ासियत यही थी कि जिस रोल में वो पर्दे पर दिखते रहे, सिनेमा में बैठी जनता को लगता रहा कि इससे बेहतर इस किरदार को कोई कर ही नहीं सकता था.
ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ टाइपकास्ट हो जाना या कर दिया जाना एक नियम सा है, इरफ़ान उन सारे नियमों को तोड़ते रहे.
जब हासिल जैसे रोल के बाद उन्हें सब नेगेटिव रोल मिलने लगे तो हिंदी मीडियम जैसे रोल से उन्होंने बार-बार दिखाया कि कॉमिक टाइमिंग में उनका जवाब नहीं.