दक्षिण मुंबई में एक महंगे रीटेल स्टोर में जिस समय शहर के संपन्न लोग दलित उद्धार और ‘बहिष्कृत लोगों’ व फ़ैशन की दुनिया के मेल पर बात कर रहे थे, 32 साल के सचिन भीमसखारे बाहर एक कोने में खड़े थे.
ये सब हो रहा था बीते पाँच दिसंबर को. सचिन भीमसखारे बताते हैं कि स्टोर में हुए इवेंट में ‘चमार फ़ाउंडेशन’ के सदस्यों द्वारा बनाए गए रबर के 66 बैग बिके.
भीमसखारे जानवरों की खाल से जुड़े काम करने वाले अनुसूचित जाति से उन 10 सदस्यों में से एक हैं जो सब्यसाची, राहुल मिश्रा और गौरव गुप्ता जैसे डिज़ाइनर्स के साथ एक प्रोजेक्ट के लिए जुड़े हैं. इस प्रोजेक्ट के तहत ही ये चुनिंदा ख़ास बैग तैयार किए गए थे.
इनकी बिक्री से मिलने वाला पैसा हाल ही में शुरू किए गए चमार फ़ाउंडेशन को जाएगा जो वकोला और सैंटा क्रूज़ में डिज़ाइन स्टूडियो खोलेंगे.
यहां महिलाओं और पुरुषों को ‘चमड़े की सिलाई’ की बारीकियों की ट्रेनिंग दी जाएगी और फ़ाउंडेशन के रबर बैग बनाने के काम से जोड़ा जाएगा. इन बैगों में ‘मेड इन स्लम्स’ की टैगलाइन लगी होगी.
इसका मक़सद अपमानजनक समझने जाने वाले जातिसूचक शब्द ‘चमार’ को फ़ैशन ब्रैंड बनाकर उसका गौरव बढ़ाना है. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति के लिए ‘चमार’ शब्द इस्तेमाल करने को प्रतिबंधित किया हुआ है.
भीमसखारे कहते हैं, ”चमार मतलब चमड़ा, मांस और रक्त. ये सब हर जीव का हिस्सा हैं. फिर हमारे काम की वजह से क्यों हमें हेय दृष्टि से देखा जाता है?”
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दलित ब्रैंड और दलित चेतना
बहुजन शॉप से लेकर जय भीम ब्रैंड और रबर के बैगों के ज़रिये देशभर में नए आर्थिक मॉडल के तहत दलित पहचान को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है.
यह नया आर्थिक मॉडल इस विश्वास पर आधारित है कि अगर दलित समुदाय दलित पहचान वाले उन ब्रैंड्स को स्वीकार करता है जो दलितों द्वारा बनाए गए हैं तो इससे मिलने वाला पैसा दलित समुदाय के लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता देगा और उन्हें सियासी फलक में भी अपनी जगह बनाने में आसानी होगी.
2014 के चुनावों को बहुत से दलित हिंदुत्ववादी ताक़तों की जीत के रूप में देखते हैं. इन चुनावों के बाद से उनमें अलग-थलग पड़ जाने का डर महसूस किया जा सकता है.
दलित समुदाय के लोगों का कहना है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण और दलित मध्यमवर्ग के उदय के कारण ही दलित ब्रैंडिंग का उदय हुआ है.
दलित लेखक और समाजसेवी चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, “यह दलितों द्वारा अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की कोशिश का एक नया रूप है. 2014 में हिंदुत्व की जीत समाज को फिर से बांट रही है और दलितों को अलग-थलग कर दिए जाने का एक नई क़िस्म का डर पैदा हो गया है. इसलिए ‘बी दलित, बाय दलित’ जैसी ब्रैंडिंग आधुनिक दलित चेतना का प्रतीक बन रही है.”
सुधीर राजभर उत्तर प्रदेश के जौनपुर से हैं और भर समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं. वह चमार स्टूडियो और चमार फ़ाउंडेशन के संस्थापक हैं. उनका इरादा अपने लेबल के माध्यम से फ़ैशन के क्षेत्र में दाख़िल होना है. लंबे समय तक इसमें बने रहने के लिए उन्होंने चमड़े की जगह रबर इस्तेमाल करने की रणनीति अपनाई है.
वह कहते है कि जब चमड़े पर पारंपरिक ढंग से की जाने वाली सिलाई वाले उनके डिज़ाइन लग्ज़री फ़ैशन की दुनिया में लेटेस्ट ट्रेंड बनते हैं तो यह तथाकथित ‘अछूतों’ द्वारा सहे गए तिरस्कार का सबसे बढ़िया ‘न्याय’ होता है.
पिछले कुछ सालों में उभरे दलित ब्रैंड भारत की जाति व्यवस्था को चुनौती देने और सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करने के लिए राजनीति और अर्थव्यवस्था का मिश्रण कर रहे हैं. इसके लिए एक रणनीति के तहत अपने समुदाय के साथ जुड़े ‘जय भीम’ और ‘बहुजन’ जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जा रहा है.
किसके पास कितनी संपदा
आदि-दलित फ़ाउंडेशन के रिसर्च विभाग का अनुमान है कि भारत में 30 लाख से अधिक दलित सरकारी कर्मचारी हैं. ये संख्या केंद्र और राज्य सरकारों और अन्य सरकारी विभागों की है और इनकी कमाई लगभग 3 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये अनुमानित है.
भारत का संविधान अपने निदेशक सिद्धांतों में समानता का ज़िक्र करता है और ‘अस्पृश्यता की परंपरा’ के कारण ‘बेहद पिछड़ी’ जातियों की सूची (अनुसूची) को विशेष सुरक्षा और लाभ भी देता है.
भारत में अस्पृश्यता ग़ैरक़ानूनी है. भारत की लगभग 17 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जातियों से है.
सावित्रीबाई फुले पुणे यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ दलित स्टडीज़ ने 2015 से 2017 तक ‘वेल्थ ऑनरशिप एंड इनइक्वैलिटी इन इंडिया: अ सोशियो-रिलीजियस एनालिसिस’ नाम का अध्ययन करवाया था. यह कहता है कि हिंदू अगड़ी जातियों से संबंध रखने वाली आबादी के पास अनुसूचित जाति में दर्ज लोगों की तुलना में क़रीब चार गुना अधिक संपदा है.
यह अध्ययन कहता है कि हिंदू अगड़ी जातियों के पास देश की कुल संपदा का 41 प्रतिशत है जबकि उनकी आबादी मात्र 22.28 प्रतिशत है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की मिली-जुली संपदा 11.3 प्रतिशत है जबकि उनकी आबादी 27 प्रतिशत से अधिक है.
भारत का संविधान जाति आधारित भेदभाव को ग़ैरक़ानूनी बताता है मगर तथाकथित निचली जातियों के प्रति पूर्वाग्रह बना हुआ है.
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दलित ख़रीदारों पर आधारित मॉडल
28 दिसंबर को प्रसाद अपने पोर्टल bydalits.com के लिए एक फोटोशूट कर रहे थे जिसमें शामिल महिला और पुरुष मॉडलों ने काले कपड़े, चमड़े के हैट पहने थे और चमड़े के बैग पकड़े थे.
जल्द लॉन्च होने वाला यह ई-कॉमर्स पोर्टल दरअसल एग्रीगेटर है जहां दलितों द्वारा बनाई और दलित कारोबारियों द्वारा बेची जाने वाली चीज़ें मिलेंगी. इस पोर्टल पर कोट, हैट, जूते, चांदी के बने साबुनदानी और कपड़े समेत हर वो चीज़ बेची जाएगी जो भारत के मध्यमवर्गीय दलित समुदाय की अभिलाषाओं की प्रतीक हैं.
प्रसाद कहते हैं कि आंबेडकर के लिए सूट पहनना राजनीतिक प्रतिरोध और ख़ुद को स्थापित कर अपनी मौजूदगी मज़बूती से दिखाने का ज़रिया था. वह ऐसा करके उस समाज में जाति के आधार पर खड़ी दीवारों को तोड़ना चाहते थे, जिस समाज में ऐसे भी नियम थे कि दलित कौन से कपड़े पहन सकते हैं, कौन से नहीं.
प्रसाद अपने पोर्टल और कपड़ों के ब्रैंड ‘ज़ीरो प्लस’ के ज़रिये अत्याचारों और उत्पीड़न को चुनौती देना चाहते हैं. वह इसके ज़रिये दलितों के बीच उद्मता को बढ़ावा देना चाहते हैं ताकि दलित मिडिल क्लास जो पैसा कमाए, उनमें से कुछ दलित समुदाय के पास ही रहे.